गुरुवार, 13 अगस्त 2015

कविता -गर



गीतिका -अगर
 
इमेज-साभार गूगल.कॉम


जिंदगी बन गई तपती दोपहर,
छाँव नहीं अब किसी भी पहर.

छू लेने को आसमान तैयार हैं;
हौंसलों को बस लगने हैं पर.

गर कोई चराग नहीं है जला;
हम तो जला सकते हैं मगर.

किसी की आँख में गर हैं आंसू;
क्यों न पोंछा जाये उन्हें अगर;

ये शाम वैसी नहीं रहेगी अब;
सेहन में जलता दिया रखें गर.


वीणा सेठी.

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