शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

परिवर्तन की आवाज....

मानसिक दासता से मुक्ति...
मानसिक गुलामी






एक जुमला जो अब मुहावरा बन चुका है," अंग्रेज चले गए और अपनी संतानें यही छोड़ गए............". एक कथन पर अर्थ में पूरी तरह अभिव्यक्त, किसी अर्थ का मोहताज नहीं क्योंकि इसके अर्थ की सच्चाई हर भारतीय जनता है पर उसे स्वीकार करने से कतराता है.ये एक व्यंग की तरह है जो हर भारतीय के मन को झकझोरता  है क्योंकि इसमें हमारी मानसिक स्थिति  का सत्य उजागर होता है.



  क्या कारण है की लोगों ने हमपर २००० सालों तक राज किया और अंग्रेजों ने तो लगभग २५० सालों तक हमारे आत्मसम्मान को अपने पैरों तले रौंदा और हमने उफ़ तक नहीं की. पर जैसा की कहते हैं की जब जुल्म की हद होती है तो वही से प्रतिकार या विरोध  की शुरुआत होती है जो की हुई और हमने आजादी का स्वाद  चखा.


आजादी तो हमें पाई पर किस कीमत पर ये आज हम अच्छी तरह समझ सकते हैं. अंग्रजों की शिक्षा नीति याने लार्ड मैकाले की वह नीति जिसमें हिंदुस्तान में प्रतिभाओं के विकास की जगह क्लार्क की एक पौध तैयार करना था जो की अंग्रजों की गुलामी बिना विरोध किसी विरोध के करे, सफल हुई और यही आज भी हो रहा है. लोर्ड मैकाले ने भारत की सांस्कृतिक  परंपरा, आत्मसम्मान और आत्मगौरव की जड़ पर जो चोट की उसका खामियाजा आज तक देश भुगत रहा है, हम केवल अपने अतीत के गौरव में  जीने के आदि हो चुके हैं जिसका hangover लगता है कभी उतरेगा ही नहीं, हमारी मानसिक गुलामी का ये आलम है कि हम जब भी कोई कामयाबी हमें मिलती है उसका उत्सव हम जब तक नहीं मना जब तक कि पश्चिम का कोई देश खासकर अमेरिका हमारी पीठ नहीं थपथपा देता. अगर उसे कोई बात बुरी लग जाये तो हमें याने हमारी संसद या प्रधानमंत्री को उसकी सफाई देनी पड़ती है, ( मामला हमारे देश का हो पर हेड मास्टर महोदय याने अमेरिका को हमें सफाई देना आवश्यक है, पर ऐसा चीन के साथ नहीं होता). हमारे देश के आम आदमी से लेकर खास आदमी याने प्रधान मंत्री तक अपनी इस मानसिक गुलामी के चलते अपनी मौलिक सोच का उपयोग ही नहीं करना चाहता, जो करना चाहते हैं उन्हें तथाकथित अंग्रेजों कि औलाद परे धकेल देना चाहती है और वे भी अपने देश में अपनी योग्यता की पूरी कीमत न मिलने पर वही पलायन कर जाते हैं जिन्हें (पश्चिम) अपने शोषण का जिम्मेदार मानते हैं.

इस मानसिक गुलामी के चलते जहाँ अपने आत्मसम्मान से दूर हुए हैं वही हमने अपना बहुत कुछ छीन जाने  दिया है हमारे  संस्कृतिक एवं सामजिक मूल्यों  में जो सहिष्णुता, सहनशीलता और संवेदनशीलता के मुख्य तत्त्व थे उनका हम विसर्जन कर चुके हैं. पूरे समाज में एक अजीब तरह की चुप्पी कायम हो चुकी है जो इतनी अराजकता के बावजूद भी टूटने का नाम ही नहीं ले रही है. ये बहुत ही घातक है और एक ऐसे समय की आहात भी हो सकती है जहाँ हमारे बचे हुए सामाजिक मूल्यों को ही ख़त्म न कर दे.

मानसिक दासता अर्थात मानसिक गुलामी के चिन्ह हमारे रोजमर्रा के जीवन में हम देख सकते हैं, जब भी हम किसी अंग्रजी बोलने वाले व्यक्ति से मिलते हैं तो हम उससे एकदम से प्रभावित हो जाते हैं बिना ये  जाने कि वह कितना पढ़ा-लिखा है. चार जुमले अंग्रेजी के हमें इस कदर अपने प्रभाव में लेते हैं कि हमारी सोच ही कुंठित जो जाती है और हम अंग्रेजी कि पीपनी के बजते ही नाचना शुरू कर देते हैं, अंग्रेजी भाषा का एक विदेशी भाषा के रूप में आदर कर सकते हैं पर अपनी मातृभाषा कि कीमत पर कदापि नहीं.

 कि चाहे साहित्य हो या फिर फिल्म या फिर कपड़ों का चलन हो, जीवन के हर क्षेत्र में हमें पश्चिम कि नक़ल में ही अपनी प्रगति और विकास दिखाई दे रहा है, आधुनिक होने का तात्पर्य हो गया है पश्चिम के रहन-सहन कि नक्कालों कि तरह नक़ल करना और इसके लिए बुद्धि कि आवश्यकता न के बराबर पड़ती है. उन्ही कि तरह उठने-बैठने और बात करने के इस कदर आदि होते जा रहे हैंउसके निशान हमारी जीवन शाली में साफ दिखाई दे रहे हैं और ये हमारी पारिवारिक संरचना पर जिस तरह से चोट कर रहे हैं वह रोज के समाचारों में के घटना की तरह छाते जा रहे है.


 हम  ये भूल रहे हैं कि जिनकी हम नक़ल कर रहे हैं उनके पास अपना कोई गौरवशाली न तो  संस्कृति  और न ही अतीत  है...क्या कारण हम चीन-जापान जैसे अपने गौरवशाली संस्कृतिक मूल्यों  पर गर्व करने कि  बजाये उससे  बचने कि कोशिश करते हैं -कारण साफ़ है हमारी मानसिक गुलामी है जो हमें पिछले ३०० सालों से ऐसा करने से रोक रही है और ये एक तरह का पश्चिमी सोची समझी नीति है बेहतर कहा जाये तो एक तरह का षडयंत्र है -क्योंकि भारत आने वाले समय कि एक उभरती हुई आर्थिक शक्ति है और एक बड़ा बाजार है जहाँ पर पश्चमी जगत अपना माल खपा सकता है और ये तभी संभव है जबकि वो अपने जीवन मूल्यों को यहाँ स्थापित कर सके.और उन्हें हमारी कमजोरी याने अंग्रेजियत कि प्रति मानसिक गुलामी के बारे में अच्छी तरह से पता है. यही कारण है की भारतीयता का पश्चिमीकरण बड़ी द्रुत गति से हो  रहा है और हम शुतुरमुर्ग की तरह आने वाले इस खतरे की जानते हुए भी अनदेखी कर रहे हैं.

अब भी वक्त है जब हमें इस मानसिक गुलामी से छुटकारा पाना चाहिए और अपने पारंपरिक व संस्कृतिक मूल्यों पर शर्मिंदा होने की बजाये गर्व करना सीखना होगा. जो चुप्पी समाज में पसरी पड़ी है उसे  तोड़ना होगा अन्यथा ये सन्नाटा आत्मघाती सिद्ध हो  सकता है. हमारे पास जिस चीज की कमी  है वह है राष्ट्रीय चरित्र जो जापान और चीन जैसे एशियाई देशों में कूट -कूट कर भरा है जो हमारी ही तरह एक गौरवशाली संस्कृतिक परंपरा और विरासत वाले देश हैं है और जिनमे आत्माभिमान इतना है की वे हेड मास्टर ( अमेरिका) को भी आँख दिखने से गुरेज नहीं करते. हमें इन देशों से सीखना चाहिए.............. अब इस परिवर्तन की देश को सख्त आवश्यकता  है. हमें स्वयं को बदलना होगा ताकि हमारे देश की प्रतिभाओं का हम सम्मान कर सके, हमारे देश के शहीदों का सम्मान कर सके और अपने देश की प्रतिभाओं का समुचित उपयोग कर सके.


 क्या आप तैयार हैं इस बदलाव के लिए अपन खोये हुए आत्म सम्मान को वापिस पाने के लिए-- तो सबसे पहले स्वयं को हाँ कहें और अपनी मानसिक गुलामी से छुटकारा पाए. इस उम्मीद के साथ मै अब ख़त्म करती हूँ .




  

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