रविवार, 12 अगस्त 2012

मेरी शब्द यात्रा .....2

वाक् -युद्ध 


वाक् -युद्ध



वाक् युद्ध याने शब्दों की लड़ाई। बिना शस्त्र या अस्त्र के लड़ा जाने वाला ऐसा युद्ध जिसमें कोई भी ख़ून खराबा नहीं होता और जिसमें किसी भी तरह के युद्ध क्षेत्र की आवश्यकता नहीं होती। इस वाक् युद्ध में कोई भी आपका शत्रु या मित्र आपके सामने हो सकता है।वाक् युद्ध में किसी भी तरह के बचाव के लिए ढाल की जरुरत नहीं होती। शब्दों द्वारा लड़ी जाने वाली इस लड़ाई में जब स्वर की प्रत्यंचा पर शब्द रूपी बाण से किसी पर वार किया जाता है तो वह ख़ाली नहीं जाता।

 वैसे भी कहा जाता है की शब्द का वार कभी ख़ाली नहीं जाता- और यह शब्द की तीव्रता पर निभर्र करता है की वह कितना गहरा घाव करता है। शव्द रूपी बाण शरीर पर घाव नहीं करता और न ही यह घाव मानव काया पर दिखाई देता है। यह सीधे ह्रदय पर घाव करता है और जब इन्सान की आत्मा घायल होती है तो केवल आह निकलती है । यदि घायल इन्सान पलटवार करता है तो उससे केवल निराशा और मायूसी ही हाथ लगती है। शब्दों की इस जंग में केवल इतना ही होता कि इन्सान आपसी रिश्तों को हमेशा के लिए खो देता है. और फिर कितना भी कोशिश कर ले उसे पा नहीं सकता। वक् युद्ध से दिल को जो चोट लगती है उसका मरहम केवल और केवल शब्द ही होते हैं। सांत्वना भरे शब्द इन्सान के दुखः को थोडा कम कर सकते हैं पर उसके निशान वक्त गुजर जाने के बाद भी कम हो जाते हैं पर रहते जरुर हैं। इसीलिए कहा जाता है कि जब भी जुबान खोलो सोच समझकर खोलो। दांतों के बीच में लचीली जुबान इसीलिए कैद है क्योंकि वह जब भी लपक कर बाहर आएगी अपना असर छोड़ जाएगी.
रिश्तों पर  वाक्-युद्ध धारदार हथियार का काम करता है, रिश्ते  जब  खून के हों तो बातचीत के लिए किसी औपचारिकता की आवश्यकता  नहीं  पड़ती ,पर ........पर ऐसा क्यों  होता है ....???कि जिन्हें हम दुनिया में सबसे अधिक  चाहते हैं , उन्हें  ही  हम प्रायः अपनी पैनी जुबान  याने वाक् -युद्ध से  जाने -अनजाने घायल कर देते हैं और बाद में पछताते  भी हैं।  ऐसा शायद इसलिए भी  होता  है  क्योंकि  हम ये भूल  जाते हैं कि ये रिश्ते  हमारे  लिए दुनिया में सबसे अधिक  कीमती  और मायने रखते हैं पर....पर हम करते इसके ठीक विपरीत हैं। किसी ने सच ही कहा है कि .....घर की मुर्गी दाल बराबर ....... और यही सोच हमारे व्यवहार में भी दिखाई देने लगती है। और रिश्तों  का हश्र  वाक्-युद्ध  की शक्ल  में  बाहर  आता है  और तीर तो कमान से निकल ही  चुका  होता है जिसे लौटाया हरगिज  भी नहीं जा सकता , ये केवल और ..केवल अहम् के टकराव के कारण  होता है।
कैसे  रोके इस वाक्-युद्ध को...........

 इस तरह होने वाली शब्दों की लड़ाई को रोकना हमारे ही हाथ में है, केवल करना इतना है जब भी आत्मीय वातावरण  में अपनों के बीच  बातचीत चल रही हो तो छोटीछोटी बातों को अहम् का मुद्दा  बनाने से बचें। दूसरी  स्थिति  में यदि बात का रुख लड़ाई के मैदान में तब्दील होता नजर आने लगे तो बात को एक खबसूरत  मोड़  देकर ख़त्म  कर देना चाहिए।

वीणा सेठी 






















  

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