मंगलवार, 15 मार्च 2011

-यादें...2(उसकी आँखों का ख्वाब))


आँखों में ख्वाब


रेल ले सफ़र में सामने की बर्थ पर बैठी लड़की पर ध्यान गया तो पाया की उसकी पथराई हुई आँखों को देख कर लग रहा था कि वह ग़म कि उस महीन रेखा से आगे जा चुकी है, जहाँ और कोई ग़म के आ जाने पर भी अब कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला था. उसकी आँखे खिड़की के उसपार फलक पर कुछ तलाश रही थीं. 

परिवार के दूसरे लोग सामने और मेरे साथ वाली बर्थ पर बैठे थे. उनकी बातों से लग रहा था कि वे सब हरिद्वार से लौट रहे थे. मायके और ससुराल के रिश्ते-नातों के बीच बैठी वह लड़की के शरीर पर सफ़ेद कपड़े थे और सर सफ़ेद दुप्पटे से ढका था , सूनी मांग और चूड़ी विहीन हाथ उसकी कहानी खुद ही बयां कर रहे थे. 

उसकी हालत को देख कर भारतीय समाज कि विडंबना पर क्षोभ और दुख हो रहा था, आदमी कि इस दुनिया ने नारी को पुरुष कि परछाई बन कर रख दिया है, जहाँ पुरुष के नाम कि कुछ निशानियाँ नारी को दी गई हैं जो उसे उस पुरुष के नाम पर धारण करनी पड़ती है जो उसका पति होता है और पति के न होने कि स्थिति में उसे उन निशानियों को हटा देना पड़ता है. ये सब यही दर्शाता है कि नारी व्यक्तिगत या सार्वजनिक सम्पति कि तरह है.
भारतीय समाज में वो चाहे कितना ही आधुनिक क्यों न हो गया हो पर आज भी विचारों के धरातल पर कुछ भी नहीं बदला है. फिर एक विधवा पर तो लोगों कि कड़ी नजर वैसे ही  रहती है.
वह लड़की भी शायद दुनिया के इस चलन से अभी दो-चार नहीं हुई थी,मै उसे खिड़की से बाहर झांकते हुए देख रही थी, मैंने देखा कि चुनरी कि ओट से बाहर देखती हुई उन आँखों में ख़ुशी कि एक हलकी सी लकीर उभर आई थी , यक़ीनन यादों का कोई खुशनुमा पल उसकी आँखों के आगे तैर गया था, या फिर भविष्य के लिए कोई सपना आकर आँखों में घर बना रहा था, जो भी था एक अच्छा आगाज था, पर जैसे ही वो पलती उसकी आँखों में वही सूनापन नजर आ रहा था.

               







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