गीता का मनोविज्ञान
मनुष्य के जीवन का तात्पर्य समझना है तो भगवतगीता से अच्छा कोई स्त्रोत्र नहीं
हो सकता. बेशक दुनिया के सारे धर्मग्रन्थ चाहे वो बाइबल, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब
हो अथवा गीता, सब एक ही बात सिखाते हैं,” जीवन में क्या नहीं करना चाहिए”. अब एक बात
तो तय है कि हर व्यक्ति के पास बुद्धि और विवेक है और वो ये भी जानता है कि कुछ भी
अच्छा करने या बुरा करने से क्या होता है...? “ मुझे ये चाहिए...?” अगर मन में ये
बात आ जाये तो फिर मन अधीर हो उठता है, और ये चाहत उसे वो करने को मजबूर कर देती
है; जिसे करने को हमारे धर्मग्रन्थ मना करते हैं. “ ये चाहिए”-हमारी पूरी चेतना इसी
बिंदु पर केन्द्रित हो जाती है. अब मन ने यक़ीनन उसे पाने की तड़प के रास्ते में
रूकावट आने पर क्रोद्धित तो अवश्य होना ही है. और विवेक पर से बुद्धि का नियंत्रण हटना
अवश्यंभावी है. फिर पाने की इस चाहत में कुछ मिला तो नहीं अपितु स्वयं अपनी हानि
अवश्य कर ली.
‘कुछ चाहिए या नहीं चाहिए’ वास्तव में
‘होने या न होने’ का भ्रम मात्र ही है. इस मन:स्थिति से हम रोज दो-चार होते हैं.
समस्या के मूल में यही बात है और हम ये जानते भी हैं पर मन जिद्दी बच्चे की तरह अड़े
रहना चाहता है. यही कारण है कि जीवन में हमें वास्तव में क्या चाहिए...? इस बात को
सोचने के बदले उन बातों में उलझ जाता है जो उसे जीवन के वास्तविक आनंद से दूर कर
देती हैं. यही कारण है कि मानव जीवन जीने के भ्रम में ही अपनी तमाम उम्र गुजार
देता है और वो भौतिक वस्तुओं के आस्वादन को ही जीवन का वास्तविक आनंद समझ लेता है.
वास्तव में कुछ भी पाने की होड़ में व्यक्ति अपने जीवन के मूल से हट जाता है और
जीवन के वास्तविक मूल्यों से परे अपने जीवन के अर्थ तलाशने लगता है. इसी
मृगमरीचिका में जीवन रूपी तुरंग भटकता रहता है. जीवन के मूल को समझने की जड़ में
यही मतिभ्रम वाली मन:स्थिति इंसान को जीवन के आनंद का रस नहीं लेने देती. चाहत की
ये समस्या रिश्तों में भी दिखाई देती है. जबकि होना ये चाहिए की बाह्य संसार याने
भौतिकता के प्रति हमारा भाव तटस्थ होना चाहिए याने सांसारिक वस्तुओं के प्रति एक
प्रकार की निर्लिप्तता ही हमें जीवन के वास्तविक आनंद से परिचित करवा सकती है.
जीवन के प्रति यदि हम तटस्थ रहेंगे
तो हम जीवन में वो सब कर सकेंगे जो वास्तव में एक मनुष्य का कर्म है. “कर्म” मानव
जीवन का उद्देश्य है. वो इस पृथ्वी पर इसी लिए अवतरित हुआ है. गीता के मूल में ही
कर्म योग है और ये कर्म योग तभी संभव है जब हम जीवन के प्रति तटस्थ भाव से सोचें.
स्वामी विवेकानंद और शंकराचार्य ने भी जिन चार योगों की बात कही है उनमें कर्म योग
सबसे श्रेष्ठ योग है और इसके लिए धार्मिक या अध्यात्मिक होने की आवश्यकता नहीं है.
वास्तव में गीता कर्म आधारित जीवन की सर्वश्रेष्ट नियम पुस्तिका है. और इस
पुस्तिका के प्रथम अध्याय में ही कृष्ण और अर्जुन के मध्य होने वाले संवाद में
मानव मन के संघर्ष रूपी महाभारत का ही विषद वर्णन है. अर्जुन के माध्यम से मानव के
“करूँ या न करूँ” या “होने या न होने” के
मानसिक संघर्ष को दर्शाया गया है. गीता सही अर्थों में मानव मन को समझने का
मनोविज्ञान है. (शेष)
वीणा सेठी.
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