परिवर्तन
जिंदगी
का हर पल स्वत: प्रसूत अनुभूतियों से भरा है, जो की कुछ न कुछ सिखा ही देता है.
बेशक सिखने की चाहत दिल में हो तो...! गया साल कुछ खट्टी और कुछ मीठी स्म्रतियों
के साथ विदा हो गया. इन यादों में कुछ बातें और घटनाएँ ऐसी भी थीं जो इस साल तो
क्या आने वाले सालों तक याद रहेंगी और स्म्रतिपटल पर रह-रह कर कौन्घेंगी. गुजरे
साल कि एक घटना जिसकी साक्षी मै स्वयं भी रही हूँ ने मुझे जिंदगी में न भुलाने
वाले यादगार पल सहेज के रखने को दिए हैं. # Spread the vibe to @YouthKiAwaaz and @indiblogger.के प्लेटफोर्म के जरिये मै इसे शेयर करना चाहती हूँ.
दिव्या
दी एक एन.जी.ओ. का हिस्सा हैं और
अपना होम फर्निशिंग का छोटा सा व्यवसाय भी
चलाती हैं. इस काम को वर्कशॉप में 10- 15 महिलाओं कि सहायता से करती हैं. यहाँ वे डिज़ाइनर और hand embroidery के बने प्रोडक्ट
तैयार करते हैं. उनका फोकस traditional और
tribal hand embroidery पर रहता है.. जब काम कुछ बढ़ने लगा तो उन्होंने सोचा कि कुछ
और महिलाओं को जोड़ा जाए. वे प्रायः गरीब तबके की महिलाओं को ही काम पर रखती हैं.
पर... उन्हें ये समझाना बेहद मुश्किल होता है की वे मेहनत से और अपने बल पर अपने
परिवार का पालन-पोषण कर सकती हैं. वर्कशॉप में महिलाओं को काम देने से पहले उन्हें
महीने भर का नि:शुल्क प्रशिक्षण दिया जाता है. इस बार जो महिलाएं काम करने आईं
उनमें एक चेहरा माया का भी था. वो प्रायः ख़ामोशी से अपना काम करती थी और किसी के
साथ बातचीत में हिस्सा नहीं लेती थी.माया दिव्या
दी के एन.जी.ओ. की ओर से ही आई थी. उसके
अतीत के विषय में उन्हें पता था किन्तु ये बात वर्कशॉप में काम करने वाला कोई भी नहीं
जानता था.
माया
के पास एक हुनर था, गुड़िया बनाने का. वो
कपड़े पर हाथ,पैर और धड़ की आकृति काटकर उसे
सिल कर उसमें रूई भर देती थी, फिर बाजार
में मिलने वाले पी ओ पी के बने चेहरे उनपर लगाकर उसे अलग अलग प्रान्तों की
पोशाक से सजा देती थी. ये गुड़िया बेहद जीवंत लगती थीं. धीरे-धीरे माया उनके साथ
खुलने लगी थी पर फिर भी वो अपने काम से काम रखती थी. वो सबसे ज्यादा खुल कर बात
करने से शायद अपने अतीत के कारण डरती थी और उसका डर भी सही था. कभी-कभी वो दी से
खुलकर बात कर लिया करती थी. पर जैसा कि
कहते हैं न “ सत्य कभी छुपता नहीं” , माया का भी अतीत उन्हें पता चल गया था. उन
महिलाओं में मालती नामकी एक दबंग महिला भी थी उसने माया के खिलाफ मोर्चा खोल दिया
कि यदि वह यहाँ काम करेगी तो वे सब काम नहीं करेंगी.दी के सामने बेहद विकट
परिस्थिति खड़ी हो गई, पर...उन्हें निर्णय
तो लेना ही था. माया को एन.जी.ओ. की ओर से ही ये आश्वासन मिला था कि उसे उसके
सामान्य जीवन में लौटने और सम्मानपूर्वक जीवन जीने में वे सहायता करेंगे और इसके
लिए ही उसे दिव्या दी अपनी जिम्मेदारी पर अपने साथ काम करवाने के लिए लेकर आई थी. उन्हें
फैसला तो लेना ही था और लिया भी. उन्हें महिलाओं
से साफ़ साफ़ कहना पड़ा कि वे चाहें तो काम छोड़ कर जा सकती हैं, उन्हें उम्मीद नहीं
थी कि वे इस तरह से कह सकती हैं. उन्हें बेहद समझाने की कोशिश की कि माया के बारे
में कोई नहीं जानता और उन्हें उसके साथ अपने जैसा ही समझ कर सलूक करना चाहिए पर
उन्होंने दी की बात को सिरे से ही ख़ारिज
कर दिया.
दूसरे
दिन कोई भी महिला वर्कशॉप में काम करने नहीं आई, केवल माया अकेली थी. उसने कारण
जानना चाहा तो दी टाल गई. पर... वो समझ गई और उसने दूसरे दिन से आना बंद कर दिया.
2-4 दिन के लिए वर्कशॉप का काम पूरी तरह से ठप्प पड़ गया. दी के लिए अब काम करने के
लिए नई महिलाओं कि जरुरत आन पड़ी,पर... ये काम इतना आसान न था. उन्होंने अपने
एन.जी.ओ. से संपर्क साधा और उनके लिए एक नया ही मार्ग खुल गया. एन.जी.ओ. और दी ने
मिलकर ये निर्णय लिया कि क्यों न माया जैसी महिलाओं को काम दिया जाये जिससे कि वे
औरतें एक आम इसांन कि तरह सम्मान से जीवन जी सकें. माया को उनका इंचार्ज बना दिया
गया और दी काम एक बार फिर रफ़्तार पकड़ने लगा. पुरानी महिलाओं को ये उम्मीद नहीं थी
कि दी अन्य महिलाओं को काम पर रख लेंगी. धीरे धीरे जब उनको पैसों की कमी खलने लगी
तो वे दी के पास काम पर लौटने की बात करने लगी पर तब तक देर हो चुकी थी और उन्हें
ये भी नहीं पता था कि दूसरी महिलाएं कौन हैं...? जब वे दी से मिली तो उन्हें पता
चल गया तो वे सोच में पड़ गईं कि अब क्या किया
जाये...? क्योंकि आर्थिक रूप से विपन्न होने के कारण काम करने कि मज़बूरी थी
पर ... माया जैसी महिलाओं के साथ...? दी चाहती थीं कि वे उन महिलाओं के साथ ख़ुशी
से काम करें न की लाचारी में. दी ने उन्हें समझाया कि वे सब इस व्यवसाय में अपनी
इच्छा से नहीं गई वरन उन्हें इस ओर धकेलने वाला समाज या स्वयं घर वाले ही थे. उनकी
कहानियां सुन महिलाओं के दिल दहल गए और वे उनकी मज़बूरी समझ गई. अब वे सब एक छत के
नीचे काम कर रहीं हैं. दी ने उनसे वचन लिया कि वे उन महिलाओं के बारे में किसी
दूसरे को नहीं बतायेंगी. और सबने ऐसा ही किया . आज ये ग्रुप दिव्या दी के साथ उनके
व्यवसाय में अपना योगदान दे रह है और मै इस सब घटना की एक मूक गवाह हूँ.
ये बात यहीं पर ख़त्म नहीं होती ये मिशनदिव्या दी ने 2014 में शुरु किया और अपनी लड़ाई को वे 2015 में ही ख़त्म कर पाईं. उन्हें पता था कि ये बात यदि खुल गई तो वे उन महिलाओं के साथ न्याय नहीं कर पाएंगी. इसलिए मै भी इस घटना के स्थान का उल्लेख किये बिना और नामों में परिवर्तन कर लिख रही हूँ. शायद ये ब्लॉग पढ़कर कोई और भी समाज में इस तरह के परिवर्तन का साहस करे और ये परिवर्तन लोगों कि सोच को बदल सके ताकि उनके बारे में लोगों को खुल कर बताया जा सके. जिससे वे आने वाले समय में एक सम्मान भरी जिंदगी जी सकें. (वीणा सेठी)
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