सोमवार, 27 मई 2013

कहानी ...जीवन का भोगा यथार्थ

      

पेलियेटीव वार्ड:एक खामोश अन्तिम सफ़र 


 जीवन को एक यात्रा कहा या है और जो समय के साथ साथ आगे बढ़ती जाती है। ये यात्रा हर व्यक्ति को करनी ही है वो चाहे या न चाहे। यह यात्रा कभी कठिनाइयों से भरी होती है तो कभी सुविधाओं की कश्ती पर तैरती है। जीवन की ये यात्रा वास्तव में सुख और दुःख का एक समीकरण है पर ये समीकरण कभी  सन्तुलित नहीं रहता क्योंकि सुख और दुख के लिए कोई निश्चित प्रतिमान नहीं तय किये जा सकते।
 
 
जब भी कभी जीवन में लगता है सब कुछ ठीक चल रहा है अचानक से ही राह चलते बेखबर राही को जिस तरह से ठोकर लगती है और वो कभी-कभी बुरी तरह से लड़खड़ा जाता हैइसी  तरह जिंदगी भी एक ठोकर मार  देती  है और ये ठोकर तो कभी-कभी इतनी मारक होती है कि इंसान हक्का-बक्का रह जाता है और सोचने पर विवश हो जाता है कि जिंदगी इतनी कठोर भी हो सकती है  ....?? ये तब समझ आया जब एक दिन अचानक से दादी के गाल में एक बड़ा सा स्पॉट हो गया और थोड़े दिन बाद वो एक छोटी सी गाँठ  में बदल गया, पहले तो दादी ने कुछ ध्यान नहीं दिया पर एक दिन जब गाल में दर्द हुआ और खून निकला तो वे थोड़ा घबरा गई और पापा को बताया, पापा के फ्रेंड डॉ शर्मा ने दादी का चेक अप किया और पापा को उन्हें भोपाल में दिखाने की सलाह दी। पापा को लगा  की जरुर कुछ बात है, पर शर्मा अंकल ने यही कहा कि एक बार रूटीन चेक अप करवा लेना ही बेहतर है।
 
शर्मा अंकल ने जवाहर लाल नेहरु कैंसर अस्पताल में चेक अप करवाने को कहा और पापा दादी को वहीं लेकर आए। और मुझे तो साथ आना ही था क्योंकि मै दादी की लाड़ली जो हूँ। भोपाल के जवाहर लाल कैंसर अस्पताल में जब हम दादी को लेकर आये तब ये नही पता था कि  एक ऐसी दुनिया से सामना होगा जहाँ कैंसर जैसे शब्द की दहशत ही इन्सान को जिंदगी के एक ऐसे पहलू से सामना करवाता है जिससे आज दुनिया का हर आदमी बचना चाहता है।
 
दादी पापा से बार बार पूछती रहीं ," क्यों रे गब्दू ..! (पापा को दादी प्यार से इसी नाम से बुलाती हैं तब पापा के चहरे पर खिंची लकीरें देखने लायक होती हैं ...) मुझे यहाँ क्यों लेकर आया है ...? "

पापा ने अधिक तो कुछ नहीं कहा, माँ ...! तेरे गाल में चोट लगी है उसे दिखने लायें हैं।
तब दादी से रहा नहीं गया, "पर ...तू मुझे यहाँ क्यों लेकर आया है ...??" पूछकर अपनी शंका जाहिर की।
 
पापा ने दादी को टालते हुए कहा, " यहाँ पर एक दोस्त को देखने आया था, सोचा आपको भी यहीं चेक करवा लेते हैं।"
 
दादी कुछ नहीं बोली।उनका चेक अप हुआ और बिओप्सी करने के बाद रिपोर्ट दो हफ्ते के बाद देने के लिए कहा। हम दादी को लेकर घर आ गए। जैसा की डॉ . शर्मा का अनुमान था दादी के गाल में कैंसर की गाँठ थी और वो दादी को नकली दाँत लगाने के कारण हुआ था। नेहरु अस्पताल के डॉ ने ऑपरेशन की सलाह दी और दादी को अस्पताल में एडमिट कर लिया गया। उसके पहले भी दादी के कई टेस्ट हुए और वे बार बार पूछती रहीं कि  उन्हें  क्या हुआ है, चूँकि उन्हें कुछ भी नहीं बताया  था इसलिए  पापा ने यही कहा कि आपके गाल में  गाँठ है बस एक मामूली से ऑपरेशन से निकाल देंगे। एक दो घंटे की बात है और उसके बाद अस्पताल से छुट्टी मिल जाएगी।
 
डॉ ने दादी को लगभग 10 दिनों तक अस्पताल में भरती रखने के लिए कहा था और इसके लिए प्राइवेट रूम ले लिया गया था। दादी के गाल में जो गाँठ थी उसके लिए डॉ ने सोचा था कि वह पहली स्टेज का कैंसर होगा पर जब ऑपरेट किया तो वह थर्ड स्टेज का था और जो ऑपरेशन 2-3 घंटे चलना था वह लगभग 7 घंटे चला। पापा को जब पता चला तो वे बेहद परेशान थे और उन्हें पहली बार जिंदगी में मैंने फूट -फूट कर रोते देखा। दादी को 80 साल की उम्र में इस हाल में देखकर पूरा घर स्तब्ध रह गया था, दादी जैसी जिंदादिल इन्सान के साथ ऐसा हो जाने की कल्पना भी कोई नहीं कर सकता था।
 
दादी के साथ प्राइवेट रूम में माँ और मै रहे। नेहरु अस्पताल के प्राइवेट वार्ड की कतार के सामने के दरवाजे सामने एक दरवाजा और भी था और उस दरवाजे के उपर एक बोर्ड पर लिखा था "पेलियेटिव वार्ड ".  उसका मतलब न समझ आने पर मैंने एक नर्स से पूछा, तब नर्स ने बताया कि इस वार्ड में ऐसे मरीजों को रखा जाता है जिनका कैंसर आखरी स्टेज पर होता है। उस दरवाजे जब मैंने रूम के अन्दर देखा तो पाया कि वो एक बड़ा सा हॉल था  जिसमें 15-20 बेड थे और ऐसा लग रहा था कि एक भी बेड ख़ाली नहीं था। दरवाजे के बिल्कुल सामने के बेड पर एक 90 साल के बुजुर्ग लगभग नीम बेहोशी की हालत में लेते थे। उनके आसपास बहुत सारे लोग खड़े और बैठे थे।नर्स से जब पूछा नो उसने बताया कि इन बुजुर्ग का नाम सईद मिर्ज़ा था।और वे फेफड़ों के कैंसर की आखरी स्टेज पर थे, कैंसर उनके पूरे शरीर  में फ़ैल चुका था और वे बेहद दर्द के कारण बेहोशी की हालत में भी दर्द से करहा रहे थे। लगभग एक महीने  से वे इस वार्ड में भर्ती  थे, अब तो मार्फीन के इंजेक्शन भी उन्हें दर्द में राहत देने में नाकाम साबित हो रहे थे।मिर्ज़ा साहिब का परिवार काफी बड़ा लगता था, उन्हें हर समय 5-7 लोग घेरे रहते थे और उतने ही बाहर  विजिटर हॉल  में बैठे रहते थे। कुछ के हाथ में कुरान रहती थी और उनके लिए उपर वाले से दुआ मांगते रहते थे और हर एक की आँखों में आँसू साफ़ दिखाई देते थे
उन बुजुर्गवार के दर्द की तड़फ कोई भी महसूस कर सकता था। कोई बीमारी इस कदर खौफ़नाक और जानलेवा हो सकती है,ऐसा तो मैंने सपने में भी अनुमान नहीं लगाया था। वे रह रह कर दर्द से करहा  रहे थे और जब दर्द उनकी बरदाश्त करने की हद से पार हो जाता तो उनके मुँह से यकसा "अब्बा" निकल जाया करता। जिंदगी का सच तो यही है कि  इन्सान किसी भी उम्र में पहुँच जाए, दुख-दर्द में उसे अपने माता-पिता ही याद आते हैं। और वे दर्द में रह-रह कर पुकार उठते थे "अब्बा हजूर". उस आवाज का दर्द आज भी मेरे कानों में गूँज उठता है।
 
आज गुरूवार को दोपहर में उनके इर्द-गिर्द गहमागहमी बढ़ गई थी, मै दादी के  रूम में ही थी, दोपहर का समय था और  सब बैठ के खाना  खा रहे थे, दादी खाना तो नहीं खा सकती थी और उनके लिए लिक्विड डाइट अस्पताल से ही मिलती थी और वो नर्स ही उन्हें देती  थी। मै  खाना तो खा रही थी पर मेरा पूरा ध्यान  बाहर की ओर ही था। अभी मै खाना खा ही रही थी कि  अचानक बाहर की गहमागहमी अचानक ही सन्नाटे में तब्दील हो गया। मैंने सोचा कि क्यों दरवाजा  खोलकर बाहर झांक लूँ.

 दादी ने पूछा," क्या बात ...? बाहर क्यों झांक रही हो ...?"

"
कुछ नहीं दादी ...! मै  जरा पानी लेकर आती हूँ", पानी की बोटल हाथ में लेते हुए मैंने जवाब दिया, और धीरे से दरवाजा बंद करके मै बाहर निकल आई। बाहर एक नर्स से पूछा," क्या हो  गया ...?". नर्स ने बताया कि मिर्जा साहिब चल बसे। मै केवल 'ओह' करके रह गई।
 
मुझे बेहद ख़राब लग रहा था। मिर्जा साहब का परिवार उनके इर्द-गिर्द एकत्रित था, सब बेहद खामोश  थे , माहौल  में सिसकियों की आवाज़ें थी। थोड़ी देर में ही उनका पार्थिव शरीर स्ट्रेचर पर रखा था, धीरे से वो स्ट्रेचर पेलियेटीव वार्ड के बाहर आता दिखाई दिया और उस स्ट्रेचर को घेरे उनका पूरा कुनबा उनके साथ था। शायद उनके उन आखरी लम्हों में जितना साथ चल सकें चलना चाहते थे। कुछ देर तक माहौल बेहद ही खामोश रहा, इस ग़मगीन सन्नाटे को धीरे-धीरे जिंदगी अपनी ओर मोड़ने लगी थी। मै ये सब अपने सामने होते हुए देख रही थी, थोड़ी देर में ही सब पहले जैसी चहल-पहल दिखाई देने लगी थी। उस बेड पर जहाँ कुछ लम्हों पहले मिर्जा साहब जिंदगी से मौत की ख़ामोशी में चले गए थे, पर पड़ी सफ़ेद चादर को उठा दिया गया था और एक बाई उस पर दूसरी धुली सफ़ेद चादर बिछा रही थी , अब लग ही नहीं रहा था कि  अभी थोड़ी देर पहले उस बेड पर किसी ने अपनी अंतिम यात्रा पूरी की है।
 
कुछ पल गुजरे ही होंगे कि  मेरे पीछे के दरवाजे से एक नर्स तेजी से चलती हुई आई और दूसरी नर्स से बोली, " अरे ...! वह मिर्जा साहब वाले बेड की चादर बदल दी है ना, ये बेड अभी एक पेशेंट को एलोट हुआ है।" मेरी निगाहें मिर्जा साहब वाले बेड  से होती हुई दरवाजे के उपर लिखे बोर्ड पर जाकर रुकी, जहाँ पर लिखा था "पेलियेटीव वार्ड".
                                वीणा सेठी,

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