दस बजे..........
शहर की हवा;
धुंए का गुबार सा उठा है;
कोनो-कोनो में.
सायरन की आवाज
चीख़-चीख़ कर रुक जाती है.
सड़क और गलियों में
आज सन्नाटे का डेरा है.
केवल;
एम्बुलेंस के दौड़ने
और
पुलिस-सिटी की आवाज है.
यह
कुछ पलों की नहीं;
कोई
घंटा भर
पहले की ही बात थी,
जब
सब ओर
लोगों की रेल-पेल थी.
रोज की तरह
घर से
कोई ऑफिस जाने को/
दुकान खोलने को/
स्कूल जाने को/
दूध लेन को/..............
किसी न किसी काम से
घर से निकला था.
रोज की तरह कोई
बस पकड़ रहा था,
कोई मेट्रो की राह था.
पर......
दस बजे के आसपास
जब
भीड़ का उफान था,
शहर के
उसी व्यस्त चोराहे पर;
लगातार ब्लास्ट के धमाकों ने
सब ओर
सन्नाटा दौड़ा दिया था.
अब;
न किसी कार/बस/मेट्रो
की विसिल सुनाई दे रही थी.
सब ओर;
केवल
सिसकियों/ कराहों/ आहों का आर्तनाद था.
खून से सने चेहरे,
लहू से लथपथ शरीर;
यहाँ-वहाँ छितरे थे.
चौराहे पर लगी घड़ी में,
अभी भी
सुबह के दस बज रहे थे.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-09-2016) को "हिन्दी, हिन्द की आत्मा है" (चर्चा अंक-2460) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
संवेदनहीन होते समाज की मूक प्रस्तुति
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