सोमवार, 4 जून 2012

कविता .........7

आदमी

आदमी


आदमी से इस कदर ख़फा है आदमी;
कि
ख़ुद से बेज़ार हो गया है आदमी.

लहू इस कदर बेरंग हो चला है;
कि
रिश्तों से अन्जान हो चला है आदमी.

हवा का रुख इस कदर बदला;
कि
एहसास से परे हो चला है आदमी.

दहशतगर्दी से इस कदर दोस्ताना;
कि
इंसानियत से परे हो चला है आदमी.

इस पर भी सितम देखिये जरा'
कि
ख़ुद को इंसान मानने से बच रहा है "आदमी".

5 टिप्‍पणियां:

  1. यही तो विडम्बना है की आज की तारीख में आदमी केवल आदमी बनकर रह गया है और इंसानियत को भूल गया है वरना आज भी खुद को इंसान कहलाना पसंद करता आदमी।

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  2. बढिया लिखती हैं आप, अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर…… अशेष शुभकामनाएं

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