शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

लघु कथा-2.......... (प्रकृति का न्याय)

प्रकृति का न्याय -- एक अपढ़ ग्रामिण की मौलिक सोच




बस से एक बार सफ़र के दौरान एक ग्रामिण जो निश्चित ही अपढ़ था, की बातों ने सोचने पर विवश कर दियाबस में पीछे की सीट पर - ग्रामिण बैठे थे और फसल और मौसम के बारे में बातें कर रहे थेएक ग्रामिण ने कहा, ' गेहूं की फसल खेत में पक चुकी है और रात में पानी गिर गया, फसल कहीं ख़राब हो जाये?' इस पर दूसरा किसान बोल पड़ा, " अरे अब तो मौसम की कभी भी पता नहीं चलता कब बारिश हो जाती है और कब ठण्ड बढ़ जाती है, फसल का तो अब कोई ठिकाना नहीं रहा।"
इसी तरह के वार्तालाप के बीच में जो एक बात सुनाई दी उसने एक अपढ़ ग्रामिण की सच से मेरा परिचय पहली बार हुआ जिसने ये सोचने पर विवश कर दिया की अपने आप को तथाकथित शिक्षित और प्रज्ञावान मानने वाले हम लोगों से उस अपढ़ ग्रामिण की सोच अधिक उन्नत व तथ्यपरक थी, वह अपने साथियों से कह रहा था, ' अरे! प्रकृति के संग अगर हम खिलवाड़ करते रहेंगे तो क्या वो हमें माफ़ करती रहेगी, हम उससे लेते ही रहते हैं, बदले में कभी लौटाने की नहीं सोचते, ये उसी का नतीजा है की अब उसने जाता दिया है की वो और खिलवाड़ बर्दाश्त नहीं करेगी, उसकी सहनशक्ति ख़त्म हो चुकी है, अगर हम अभी भी नही सम्हले तो वो हमें सबक सिखाएगी, ये उसने जाताना भी शुरू कर दिया है."

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