लिव-इन-रिलेशोंशिप पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला
सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर वाकई हमारी प्रतिक्रिया तीखी नहीं होनी चाहिए की हम अपने सामाजिक सरोकारों पर ही ऊँगली उठाने लगें , अचानक से ही बहुत कुछ कहना सबके लिए आवश्यक हो गया है।
भारतीय समाज जो परिवार पर आधारित है और उसमें इस तरह के रिश्तों के लिए यदि स्थान नहीं है तो नहीं है इस पर इतनी हाय-तौबा क्यों। बेशक हमारी सामाजिक व्यवस्था में खामियां हैं पर कहाँ नहीं होती पर उसकी बुराई करने की बजाय या उसे कोसने की बजाय उसे सुधारने की कोशिश की जानी चाहिए।
लिव-इन-रिलेशनशिप कोई नई बात नहीं है, आदिवासियों में यह परम्परा सदियों से है इस तरह की सोच नितांत ही व्यक्तिगत है। यदि दो लोग इस तरह से जीवन जीना चाहते हैं तो भी बवाल नहीं मचना चाहिए क्योंकि किसी भी जीवन शैली को जब दो लोग अपनाते हैं तो उसके परिणाम भी उन्हें अपनाने होंगे।
वैसे एक बात विचारणीय है की पश्चिम की जिस जीवन शैली की हम जितनी वकालत कर रहे हैं वह स्वयं सी उससे उब चुका है क्योंकि वहा का समाजिक ढांचा बुरी तरह से चरमरा चुका है, अतः उसकी वकालत करते हुए कहीं हम खुद ही अपने पावों पर कुल्हाड़ी तो नहीं मरने जा रहे.................?
जियो और जीने दो चैन से- यही सार्वभौम लोकतंत्र है।
जवाब देंहटाएंहमने हमेशा दूसरों की नकल की है जिसका खामियाज़ा नई पीढ़ी ने ही भुगता है............"
जवाब देंहटाएंयह बात तो सही है कि ये दो लोगो का निजी फ़ैस्ला है लेकिन साथ रहने से आगे चलकर उनके इस निर्णय का असर उनके बच्चो पर जो पडेगा उस पर निगाह डालना समाज की जिम्मेदारी है. सिद्धान्त रू से तो साथ रहने मे कोइ दिक्कत हो ही नही सकती वो शारीरिक सम्बन्ध बनाये इस पर भी किसे को आपत्ति नही हो सकती पर बच्चे हुए तो समाज के चिन्ता का बिषय बन ही जाता है. नयी रीत है तो आलोचना और चर्चा भी होगी ही.
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