मुक्ति...मुक्ति...
मुक्ति एक छोटा सा शब्द है किन्तु व्यापक अर्थ को समेटे है। धर्मानुसार 'मुक्ति' का अर्थ है 'मोक्ष' , साधारण अर्थों में मुक्ति से तात्पर्य है 'स्वंत्रता'। अध्यात्म में ' मुक्ति' मतलब इतना विशाल है की जिसे शब्दों में परिभाषित करना मुश्किल ही नहीं वरन दुरूह है, इसे जिसने जिया है वही इसे परिभाषित भी कर सकता है और इसके अर्थ को वास्तविक अर्थों में समझ भी सकता है।
हर व्यक्ति का स्वयं से स्वतंत्र अनुभव करना ही मुक्ति है, हर बंधन, हर रीती-रवाज, हर रिश्ते,हर अभिलाषा , हर इच्छा , याने हर वो बात जो मन में इच्छा या चाहत पैदा करे, से विमुक्त होना मुक्ति है। हर तरह की सोच और अभिलाषाओं तथा वासनाओं से जो ऊपर उठ चुका है वह मुक्त जो चुका है।
ये एक ऐसी मानसिक अवस्था है जो जिंदगी में यूँ ही नहीं हासिल की जा सकती। इसके लिए स्वयं को साधना पड़ता है, और मन का साधना आसान नहीं होता। चित्त की चंचल अवस्था व्यक्ति को भटकाती है और यह तब और भी मुश्किल हो जाता है जब इंसान रिश्तों के भंवर में डूब-उतर रहा होता है।
कोई भी रिश्ता वह खूंटा है जिससे बंधा इन्सान ताउम्र उसी खूंटे के इर्दगिर्द चक्कर काटता रह जाता है और केवल मृत्यु ही उसे छुटकारा दिलवा पाती है। ऐसे ही इच्छा और अभिलाषा वो भूल-भुलईया है जिसमें बहकाकर इन्सान सारी उम्र बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ता रह जाता है।
स्वयं से मुक्ति ही वास्तविक स्वतत्रता है और यह तभी हासिल हो सकती जब हम इन सब बातों से ऊपर उठ जाया इसका ये कदापि मतलब नहीं है की आप सन्यासी हो जाये और जंगल में जाकर बैठ जाएँ, बल्कि अपने मन को वश में करना सीखें। फिर देखिये आप स्वयं को कितना मुक्त पाएंगे, चाहे तो एक बार आजमा लें....
मुक्ति एक छोटा सा शब्द है किन्तु व्यापक अर्थ को समेटे है। धर्मानुसार 'मुक्ति' का अर्थ है 'मोक्ष' , साधारण अर्थों में मुक्ति से तात्पर्य है 'स्वंत्रता'। अध्यात्म में ' मुक्ति' मतलब इतना विशाल है की जिसे शब्दों में परिभाषित करना मुश्किल ही नहीं वरन दुरूह है, इसे जिसने जिया है वही इसे परिभाषित भी कर सकता है और इसके अर्थ को वास्तविक अर्थों में समझ भी सकता है।
हर व्यक्ति का स्वयं से स्वतंत्र अनुभव करना ही मुक्ति है, हर बंधन, हर रीती-रवाज, हर रिश्ते,हर अभिलाषा , हर इच्छा , याने हर वो बात जो मन में इच्छा या चाहत पैदा करे, से विमुक्त होना मुक्ति है। हर तरह की सोच और अभिलाषाओं तथा वासनाओं से जो ऊपर उठ चुका है वह मुक्त जो चुका है।
ये एक ऐसी मानसिक अवस्था है जो जिंदगी में यूँ ही नहीं हासिल की जा सकती। इसके लिए स्वयं को साधना पड़ता है, और मन का साधना आसान नहीं होता। चित्त की चंचल अवस्था व्यक्ति को भटकाती है और यह तब और भी मुश्किल हो जाता है जब इंसान रिश्तों के भंवर में डूब-उतर रहा होता है।
कोई भी रिश्ता वह खूंटा है जिससे बंधा इन्सान ताउम्र उसी खूंटे के इर्दगिर्द चक्कर काटता रह जाता है और केवल मृत्यु ही उसे छुटकारा दिलवा पाती है। ऐसे ही इच्छा और अभिलाषा वो भूल-भुलईया है जिसमें बहकाकर इन्सान सारी उम्र बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ़ता रह जाता है।
स्वयं से मुक्ति ही वास्तविक स्वतत्रता है और यह तभी हासिल हो सकती जब हम इन सब बातों से ऊपर उठ जाया इसका ये कदापि मतलब नहीं है की आप सन्यासी हो जाये और जंगल में जाकर बैठ जाएँ, बल्कि अपने मन को वश में करना सीखें। फिर देखिये आप स्वयं को कितना मुक्त पाएंगे, चाहे तो एक बार आजमा लें....
satyavachan kaha hai Veena ji :)
जवाब देंहटाएंaise hi likhte rahein. :)
Regards
Jay
http://road-to-sanitarium.blogspot.in/